31 जनवरी 2015

नादान ख्वाबों के परिंदों

रात गहरी हो चुकी है
नींद पलखों पर रुकी है
दर न मेरा खटखटाओ..
आँख से बहती नदी पर
बेसमय तुम यूँ उतरकर
प्यास अपनी ना मिटाओ..
चैन, सुद-बुध छीनकर, ना नींद पर भी हक जताओ
नादान ख्वाबों के परिंदों, अब न यूँ मुझको सताओ ॥ १ ॥

शाल यादों की लपेटे
दर्द को मन में समेटे
एक-टुक देखू गगन में..
खामखाँ तनहाइयों में
भेस में परछाइयों के
झाँकते हो क्यूँ जहन में..
ना कभी सच हो सकेगी, दासताँ वो ना बताओ
नादान ख्वाबों के परिंदों, अब न यूँ मुझको सताओ ॥ २ ॥

ये अंधेरे की परीक्षा
सदियों से जिसकी प्रतिक्षा
वो सहर अब हो, न हो..
गाँव अपने लौट जाना
चाहते थे तुम सजाना,
वो नगर अब हो, न हो..
ना बचेगा घोंसला, तिनकें न तूफाँ में जुटाओ
नादान ख्वाबों के परिंदों, अब न यूँ मुझको सताओ ॥ ३ ॥

- अनामिक
(१४-३०/०१/२०१५)

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