31 अक्तूबर 2017

चोट

गुमसुम पडी थी मुद्दतों से, शाख दिल की हिल गयी 
जो लाख टाली थी नजर, वो फिर नजर से मिल गयी 

सौ कोशिशों, सौ मरहमों से जख्म था भरने लगा 
इक जिक्र क्या उनका हुआ, वो चोट फिर से छिल गयी 

जकडे रखी थी नैन में इक ख्वाब की तितली हसीं 
भवरा भरम का क्या दिखा, पर फडफडाकर खुल गयी 

बेताब थे सब लोग सुनने, जब तलक लब थे सिले 
दुखडा जरा क्या गा दिया, उठकर भरी महफिल गयी 

वो इक सुहाना हादसा.. घटकर सदी भी हो चुकी 
पर आज भी उस सांझ की वो याद फिर से छल गयी 

- अनामिक 
(०६-३१/१०/२०१७)

29 अक्तूबर 2017

काळोखाच्या किती छटा

रात्र नेसुनी जशी उजळते शुभ्र चंद्रकोर अंबरी 
तसा शोभतो काळोखाचा रंग भरजरी तुझ्यावरी 

केसांमधल्या काळ्या लाटा 
डोळ्यांचे काळोखे डोह 
पापण्यांतली काळी नक्षी 
कसा आवरू त्यांचा मोह 

त्यात तुझा मखमाली काळाशार राजबिंडा पेहराव 
वाढवतो नजरेची तृष्णा, मुग्ध मनाचा घेतो ठाव 

त्यावर इवल्या चमचम टिकल्या, 
नक्षत्रांचा जणू बहर 
किती पाहिले वेष तुझे, 
ना एकालाही याची सर 

पंखांशिवाय, छडीविनाही भासतेस तू यात परी 
काळोखाच्या किती छटा त्या खुलून दिसती तुझ्यावरी 

- अनामिक 
(२४-२९/१०/२०१७)