24 अक्तूबर 2010

इक नदी / किनारा हो न हो

बह चला हूँ इक नदी में, अब किनारा हो न हो
डूब जाऊ या उभर पाऊ, सहारा हो न हो

ले चली किस ओर धारा, मंजिले किस छोर है
दिल जिसे तरसे युगों से, वो नजारा हो न हो

इक लहर है गुदगुदाती, दूसरी घायल करे
हर सितम चुपके सहू मैं, कोइ चारा हो न हो

दिल मचलता हर घडी, चंचल किसी मछली तरह
आहटों से भी बहकता, कुछ इशारा हो न हो

खींच ले भीतर मुझे रंगीन ख्वाँबों का भँवर
अब हकीकत की जमीं छूना दुबारा हो न हो

हर दिशा पानी सुनहरा, प्यास पर बुझती नही
चाँद की परछाइयाँ पीकर गुजारा हो न हो

यूँ सभी झरने, पुहारे तो समा लेती नदी
आँख से छलकी उसे बूँदे गवारा हो न हो

- अनामिक
(०३/०७/२०१० - २३/१०/२०१०)