जंगल की पतझड मिटा सके, इतनी भी वो घनघोर नही
वैसे तो कुछ कमी नही सावन की बौछारों में, पर..
मन का तहखाना भिगा सके, उनमें अब तक वो जोर नही
बादल-बिजली बजा रहे हैं ढोल-नगाडें जोश में, पर..
सोते सपनों को जगा सके, इतना भी उनका शोर नही
रिमझिम बरसे.. टिप-टिप बरसे.. जमकर भी बरसे बरखा, पर..
पंख पसारे नाच दिखाने राजी इक भी मोर नही
अंबर से धरती तक आती लाख लकीरें दिखती हैं जो
बूँदें है बस.. जोड सके दोनों को ऐसी डोर नही
कब बरसेगा ? कब सूखेगा ? कहा रुकेगा ? कहा बहेगा ?
जीवन है बारिश का पानी.. जिसका कोई ठोर नही
- अनामिक
(१७/०६/२०२१ - ०३/०८/२०२१)