31 दिसंबर 2016

ऐ गुजरते साल

ऐ गुजरते साल, तुमने बिन कहे क्या कुछ दिया 
लब्ज भी कम पड रहे करने तुम्हारा शुक्रिया 

कुछ पुराने दोस्त छूटे, कुछ नये साथी मिले 
कुछ सुहाने ख्वाब रूठे, कुछ हसीं सपनें खिले 

बेजान कविता, शायरी को मिल गयी संजीवनी 
दिलकश धुनें खामोश मन को फिर लगी हैं सूझनी 

घूमने के शौक ने भी मंजिलें ढूँढी नयी 
और भीतर के मुसाफिर ने मकाम पाए कई 

हाँ ठीक है, जाते हुए तुमने भिगाए नैन है 
पर लबों की ये हसी भी तो तुम्हारी देन है 

- अनामिक 
(३०,३१/१२/२०१६) 

22 दिसंबर 2016

तोहफा

दूर शहर से लाए उस तोहफे का मुझसे सवाल है 
"लाए हो जिनके लिए, उन्हे कब देने का खयाल है ? 

दराज में ही रखना था, तो इतनी याद से लाए ही क्यों ? 
उनके पास पहुँचने अब बेसब्री से बुरा हाल है" 

मैंने बोला, "तू तो क्या, मैं चाँद तोडकर भी ला दू 
पर एक चाँद को चाँद दूसरा देने में क्या कमाल है ? 

सब्र रख, तुझे सही वक्त पे नजराने सा पेश करू 
उनको भी तो लगे, की देनेवाला भी बेमिसाल है" 

- अनामिक 
(०८,२१,२२/१२/२०१६) 

19 दिसंबर 2016

इंतजार नही

हाँ, आज भी खुले हैं दिल के खिडकी दरवाजें तेरे लिए 
पर अब आँखों की चौखट को तेरा कोई इंतजार नही 

तू आए तो बाहें खोले जिंदगी करेगी स्वागत ही 
पर ना भी आए, तो भी कोई गम, शिकवा, तकरार नही 

हाँ, कभी कभी तेरे खयाल की तितली उडती हैं मन में 
पर जजबातों के फूलों में अब बचा महकता प्यार नही 

गलती से छिडता है गिटार पे तुझपे रचा हुआ नगमा 
पर गिटार की तारों में अब वो पहले की झनकार नही 

माना पत्थर पे तराशे हुए नाम मिटाना मुश्किल हैं 
पर वक्त की दवा से न ठीक हो, ऐसा कोई वार नही 

- अनामिक 
(१८,१९/१२/२०१६) 

14 दिसंबर 2016

सफर

कभी इस शहर, कभी उस नगर
कभी ये गली, कभी वो डगर
रुकने का ना नाम ले रहा
शुरू हुआ इक बार जो सफर ॥ धृ ॥

कभी पर्बतों की ऊँचाई
कभी नदी की गहराई
कभी पत्थरों की सुंदरता
कभी किले की तनहाई
चख लेती है कितने मंजर
तितली बनकर शोख नजर ॥ १ ॥

हर हफ्ते है नया ठिकाना
नक्शे पर इक नया निशाना
हो ना हो जाने की मनशा
बन जाए खुद-ब-खुद बहाना
बंधा ही रखू अपना बस्ता
आए बुलावा, चलू बेफिकर ॥ २ ॥

- अनामिक
(११-१४/१२/२०१६)

08 दिसंबर 2016

महूरत

इक बात भी करने कभी यूँ तो न फुरसत है तुम्हे 
कैसे मिला फिर आज आने का महूरत है तुम्हे ? 

अब आ गए संजोग से, तो चार पल संग बैठ लो 
कुछ खैर मेरी पूछ लो, कुछ हाल अपना बाँट लो 

मैं मन ही मन में रोज तुम से अनगिनत गप्पें करू 
पर सूझ कुछ भी ना रहा, जब आज हो तुम रूबरू 

बस काम की और काज की ही बात कब से चल रही 
पर क्या करू ? तुमको अलग कुछ जिक्र ही भाता नही 

जो बस चले मेरा अगर, दिन भर यही बैठे रहे 
ना हो जुबाँ से बात भी, सब कुछ निगाहों से कहे 

पर दो मिनट में तुम कहोगे, "देर काफी हो गयी" 
तुम टोकने से पहले ही मैं खुद कहू, "निकले अभी" 

अब उठ गए, तो सूझती हैं सैंकडों बातें भली 
अफसोस, अब बस दो कदम पर है जुदा अपनी गली 

मदहोश रह लू आज, ख्वाबों का खिला जो गुलसिताँ 
आए न आए फिर कभी ऐसा महूरत, क्या पता ? 

- अनामिक 
(०२-०८/१२/२०१६) 

04 दिसंबर 2016

ठीक है

रचता गया मैं तारिफों के फूल उसकी राह में
उसने कहा बस, "ठीक है"
लिखता गया कितने सुहाने गीत उसकी चाह में
उसने कहा बस, "ठीक है"

उसके लबों मुस्कान लाने की सदा की कोशिशें
मांगे बिना करता रहा पूरी सभी फर्माइशें
जो बन सका, सब कुछ किया उसकी फिकर, पर्वाह में
ना लब्ज कम पडने दिए उसकी स्तुती, वाह-वाह में
उसने कहा बस, "ठीक है"

उसकी हथेली में सजा दू चाँद-तारें भी अगर
रुख मौसमों का मोडकर ला दू बहारें भी अगर
वो बस कहेगी, "ठीक है"
मैं तितलियों से रंग चुराकर जिंदगी उसकी भरू
मैं बिजलियों को तोड उसके पैर की पायल करू
वो बस कहेगी, "ठीक है"

वो है अगर यूँ बेकदर, सब जानकर भी बेखबर
मैं सोचता हूँ, बस हुआ.. अब मोड लू अपनी डगर
मैं भी कहू अब, "ठीक है"

- अनामिक
(३०/११/२०१६ - ०४/१२/२०१६)