अजब सी कश्मकश है हर घडी, सुलझे न इक मुश्किल
खयालों का उठा तूफान है, बस में न अब है दिल
बसा है जो निगाहों में, करू कैसे उसे हासिल ?
रुकू उसके इशारे के लिए, या खुद करू शुरुवात ?
जुबाँ से छेड़ दू अल्फाज, या कर लू नजर से बात ?
दिखाऊ सिर्फ दोस्ती, या जताऊ मैं दबे जज़बात ?
रखू दर्म्यान कुछ दूरी, मिलू या रोज सुबहो-शाम ?
करू मैं जल्दबाजी, या जरासा सब्र से लू काम ?
समय की रेत फिसले हाथ से, निकले न कुछ अंजाम
करू मैं क्या जतन, जो कर सकू उसके जिया में घर ?
बिखेरू शायरी के रंग, छेडू बांसुरी के स्वर ?
लगे पर डर, कही उसका अलग ही तो नही ईश्वर ?
जताऊ तो भला कैसे, बताऊ तो भला कैसे ?
करू मैं दो दिलों के बीच का तय फासला कैसे ?
सुनहरी जिंदगी का हो शुरू तो सिलसिला कैसे ?
सुलझती है न ये उलझन..
- अनामिक
(३१/०१/२०१४ - १८/०२/२०१४)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें