या फासलों का वक्त है ?!
पर फासलों से क्या कभी हो जाते कम जज़बात हैं ?!
जब मुस्कुराती थी सहर
खिलती चहकती सांझ थी
उन यादों में गुम आज भी इक चाँदनी की रात है
आए गए सावन कई
बैसाख भी तो कम नही
इक धूप की राहों में मुद्दत से रुकी बरसात है
तकदीर के ही पैंतरें
तकदीर के ही फैसलें
कठपुतलियों के खेल में क्या जीत, और क्या मात है ?!
इस ओर से निकली सदा
उस छोर पहुँचेगी जरूर
कब, कैसे आए लौटकर.. संजोग की ही बात है
कब, कैसे आए लौटकर.. संजोग की ही बात है
उस मोड आकर थम गयी थी
इक सुरीली दासताँ
जिस मोड पर ऐसा लगा था, हाँ यही शुरुआत है
- अनामिक
(९-१४/०२/२०२२, १७/०४/२०२२)
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