25 जनवरी 2018

काँच की दीवार

ये काँच की दीवार है मेरे-तुम्हारे दर्मियाँ 
यूँ तो लगे नाजुक, मगर फौलाद से कुछ कम नही 
इस को गिराने का खुदा की जादू में भी दम नही 

इस छोर का, उस पार का सब कुछ दिखाई दे, मगर.. 
हैं बंदिशें दोनो तरफ आवाज के हर रूप पर 
बातें, पुकारें, शोर, सुर, सिसकी, हसी, सरगम नही 

इक दौर था, जब दो पलों की गुफ्तगू ही थी खुशी 
अब तो महीनों की घनी खामोशी का भी गम नही 

अब सच कहू, तो काँच की दीवार ही ये है सही 
बंद खिडकियाँ खुलने की अब उम्मीद कम से कम नही 
शायद पुकारोगे कभी, गलती से ही.. ये भ्रम नही 
हाँ, वक्त से बढिया किसी भी जख्म पर मरहम नही 

- अनामिक 
(२३-२५/०१/२०१८) 

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