सांझ अकेली, इंतजार की, साथ चाय की प्याली थी
अफसोस.. सामने वाली कुर्सी मगर आज भी खाली थी
गरम चाय की भाप लपेटे
तैर रहे थे बीते लम्हें
जाने उनकी राह ताकते
गुजरी कितनी रातें-सुबहें
दिल की शीशी में इत्तर सी उनकी याद संभाली थी
अफसोस.. सामने वाली कुर्सी मगर आज भी खाली थी
पगली सी उम्मीद लिए
बेगानों संग आया था
मीलों की दूरी पार किए
गुलशन में पर वो ना थी, ना ही वो आनेवाली थी
अफसोस.. सामने वाली कुर्सी मगर आज भी खाली थी
घंटो बैठा रहा वही पे,
भटक भटक के थक गयी नजर
ढूँढ रही थी आहट उनकी,
कभी इस गली, कभी उस डगर
गीली आँखों में ढलते सूरज की उतरी लाली थी
अफसोस.. सामने वाली कुर्सी मगर आज भी खाली थी
- अनामिक
(१७-२७/०१/२०१६)
khupach chan ahekavita!!
जवाब देंहटाएंखूप खूप आभार शीतल :-)
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