05 अप्रैल 2015

गुमशुदा

जाने कहा गुमशुदा हूँ मैं.. खुद को भी आऊ न नजर
छान चुका हूँ चप्पा-चप्पा, फिर भी कुछ ना लगे खबर

शायद उस बगिया में गुम हूँ, जहा खिले थे सपनों के गुल
जहा हकीकत की नदिया पे अफसानों के बाँधे थे पुल

या उस साहिल पे बैठा हूँ, जहा कभी थे रेत के महल
जहा वक्त की मुठ्ठी से फिसले थे मोतियों जैसे कुछ पल

या उस बन में भटक रहा हूँ, जहा मेहरबाँ थी हरियाली
जहा बची है अब यादों के सूखे पत्तों की रंगोली

या उस दोराहे पे खडा हूँ, रुकी पडी है जहा जिंदगी
एक राह पे हालाहल है, और दूजी पे सिर्फ तिश्नगी

या चौखट पे इंतजार की, नजरों के कालीन बिछाए
उस मेहमाँ की राह तक रहा हूँ, जो अब फिर कभी न आए

ढूँढ-ढूँढते खुद को शायद लग जाएगा एक जमाना
यही दुआ है अब, कम-से-कम परछाई का मिले ठिकाना

- अनामिक
(१९/०३/२०१५ - ०५/०४/२०१५)
 

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