07 नवंबर 2017

रूबरू

हैं वक्त की बदमाशियाँ,
फिर लौट आयी वो घडी
जिस मोड से मैं थी मुडी,
उस मोड पे फिर हूँ खडी
रंगीन ख्वाबों के सफर में अतीत फिर है रूबरू
इक हादसे में खो दिया, वो मीत फिर है रूबरू          ॥ मुखडा ॥ 

बीते समय की पटरियों पे ट्रेन यादों की चले
दो बोगियाँ होकर जुदा भी ना मिली थी मंजिलें
कितनी भी खोलू खिडकियाँ,
गुजरा नजारा ना दिखे
जो रह गया पीछे कही
स्टेशन दुबारा ना दिखे
खिलकर लबों पे चुप हुआ, वो गीत फिर है रूबरू
इक हादसे में खो दिया, वो मीत फिर है रूबरू          ॥ अंतरा-१ ॥ 

वो गैर संग खुशहाल है, ये बात अब क्यों खल रही ?
खुद ही बुझाई थी कभी, वो आग फिर क्यों जल रही ?
कुछ गलतियाँ, नादानियाँ,
कुछ जिद-घमंड, शिकवें-गिलें
जड से जला देती अगर
होते न पैदा फासलें
वो हार मेरी, गैर की बन जीत फिर है रूबरू 
इक हादसे में खो दिया, वो मीत फिर है रूबरू          ॥ अंतरा-२ ॥ 

- अनामिक
(०१-०७/११/२०१७)

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