काँच सी बिखरी पडी यादें जुटा पाता नही
फिक्र तो है आज भी, जितनी हुआ करती थी कल
फर्क है बस, पहले जैसे अब जता पाता नही
आज भी सुनने सुनाने बाकी हैं बातें कई
पूछ पर पाता नही कुछ, कुछ बता पाता नही
फासलें ये दो जहाँ के, दो कदम ही तो नही ?
बढ न जाए और, इस डर से घटा पाता नही
बंद है दर.. दस्तकों से खुल भी जाए, क्या पता ?
ना खुला तो ? सोचकर दर खटखटा पाता नही
- अनामिक
(१८/०३/२०१७)
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