30 अक्तूबर 2014

ऐ लौटती बरखा

ऐ लौटती बरखा जरा.. कुछ पल ठहर मेरी गली
महके, खिले बिन ही​ ​यहाँ मुरझा रही है इक कली ॥ धृ ॥

सावन​ ​गुजरता ही रहा, हर ओर तू जमकर गिरी
पर सि​​र्फ मेरी बाग में तूने नही दी हाज़िरी
कैसे खिले ​​बूँदों बिना प्यासी कली वो मनचली
ऐ लौटती बरखा जरा..                      ॥ १ ॥

अब लौटकर जाते हुए तो​ ​ये ​बुझा​ ​दे​ ​तिश्नगी
रिमझिम गिरा लड़ियाँ, कली को दे महकती जिंदगी
भर दे जमीं की गोद, पंखुड़ियाँ खिला दे मखमली
ऐ लौटती बरखा जरा..                      ॥ २ ॥

- अनामिक
(०३-३०/१०/२०१४)

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